“Delhi High Court ने लोन रिकवरी पर बड़ा फैसला सुनाया। अब बैंक मनमानी तरीके से लोन वसूली नहीं कर पाएंगे। जानें कोर्ट के इस फैसले से लाखों कर्जदारों को मिली राहत।”

HR Breaking News, Digital Desk –
भारत में लाखों लोग ऐसे हैं जो बैंक से लोन लेकर किसी बिज़नेस या पर्सनल काम की शुरुआत करते हैं। लेकिन आर्थिक तंगी, बिज़नेस में नुकसान या किसी अप्रत्याशित परिस्थिति की वजह से कई बार कर्ज चुकाना मुश्किल हो जाता है। ऐसे में बैंक वसूली के लिए सख्त कदम उठाते हैं और कई बार उनकी नीतियां इतनी कठोर हो जाती हैं कि लोग अपने ही देश में अपराधी जैसा महसूस करने लगते हैं।
इन्हीं हालातों के बीच दिल्ली हाईकोर्ट का हालिया फैसला उन सभी लोगों के लिए राहत की सांस लेकर आया है जो बैंकों की मनमानी रिकवरी नीतियों से परेशान थे।
मामला क्या था?
यह केस यूनियन बैंक ऑफ इंडिया से जुड़ा है।
एक कंपनी ने बैंक से करीब ₹69 करोड़ का कर्ज लिया था।
कंपनी के एक पूर्व निदेशक ने सिर्फ गारंटर के तौर पर इस लोन पर साइन किए थे।
बाद में वह निदेशक कंपनी छोड़कर आगे बढ़ गए, लेकिन कंपनी अपना कर्ज चुकाने में असफल रही।
बैंक ने वसूली के लिए न सिर्फ कंपनी पर कार्रवाई शुरू की, बल्कि उस पूर्व निदेशक को भी निशाने पर ले लिया। इतना ही नहीं, उनके खिलाफ लुक आउट सर्कुलर (LOC) भी जारी कर दिया गया, जिससे वह देश से बाहर नहीं जा सकते थे।
कोर्ट ने क्या कहा?

पूर्व निदेशक ने कोर्ट में याचिका दाखिल की और कहा कि उन पर गलत तरीके से LOC लगाया गया है।
दिल्ली हाईकोर्ट ने मामले की सुनवाई करते हुए बैंक को कड़ा संदेश दिया। जस्टिस सुब्रमण्यम प्रसाद ने कहा—
“सिर्फ कर्ज वसूली के लिए किसी व्यक्ति के खिलाफ लुक आउट सर्कुलर जारी नहीं किया जा सकता। अगर धोखाधड़ी या गबन का मामला नहीं है, तो किसी को विदेश “किसी व्यक्ति को विदेश यात्रा से रोकना उसके मौलिक अधिकारों का सीधा उल्लंघन माना जाएगा।”
कोर्ट ने बैंक द्वारा जारी LOC को रद्द करते हुए पूर्व निदेशक को विदेश यात्रा की अनुमति भी दे दी।
बैंकों की मनमानी पर सवाल
यह पहली बार नहीं है जब बैंकों की सख्त नीतियां सवालों के घेरे में आई हैं।
कई बार बैंक कर्जदारों या उनके गारंटरों पर ऐसा दबाव बनाते हैं कि लोग मानसिक तनाव में आ जाते हैं।
कर्ज वसूली एजेंसियों द्वारा बदसलूकी और धमकी के मामले भी सामने आते रहे हैं।
अब अदालत का यह फैसला साफ करता है कि बैंक कानून से ऊपर नहीं हैं और उन्हें संविधान द्वारा दिए गए अधिकारों की मर्यादा का पालन करना होगा।
क्यों अहम है यह फैसला?
लाखों कर्जदारों के लिए राहत – अब कोई बैंक सिर्फ रिकवरी के नाम पर किसी को अपराधी जैसा ट्रीट नहीं कर पाएगा।
गारंटर की जिम्मेदारी सीमित – गारंटर होने का मतलब यह नहीं कि बैंक उन्हें हर हाल में आरोपी बना दे।
कानूनी सुरक्षा की गारंटी – कोर्ट ने साफ किया है कि आर्टिकल 21 यानी जीवन और स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार से कोई समझौता नहीं होगा।
बैंकों के लिए चेतावनी – अब उन्हें यह समझना होगा कि वसूली की प्रक्रिया में भी नियम और इंसानियत दोनों जरूरी हैं।
कर्जदारों के अधिकार
यह फैसला आम जनता के लिए एक मैसेज भी है। अगर आप लोन चुकाने में असमर्थ हैं, तो इसका मतलब यह नहीं कि आपके अधिकार खत्म हो गए।
बैंक सिर्फ कानूनी प्रक्रिया के तहत ही आपसे पैसा वसूल सकते हैं।
आपको विदेश यात्रा से रोकने या जेल भेजने जैसी कार्रवाई तभी हो सकती है जब आप किसी धोखाधड़ी या गबन में शामिल हों।
रिकवरी के दौरान आपके सम्मान और अधिकारों की रक्षा करना भी कानून का हिस्सा है।
बैंक और ग्राहकों के बीच भरोसे की जरूरत
भारत में बैंकिंग सिस्टम की मजबूती इस बात पर भी निर्भर करती है कि बैंक और ग्राहक के बीच भरोसा बना रहे। अगर बैंक हर कर्जदार को अपराधी की तरह ट्रीट करेंगे, तो लोग लोन लेने से ही डरने लगेंगे।
हाईकोर्ट का यह आदेश यही दिखाता है कि सिस्टम को संतुलित रखना जरूरी है। बैंकों को भी यह समझना होगा कि कर्ज वसूलने के साथ-साथ उन्हें इंसानियत और संवेदनशीलता भी दिखानी होगी।
आगे का रास्ता
अब उम्मीद है कि यह फैसला मिसाल बनेगा और देशभर के बैंक अपनी रिकवरी नीतियों पर पुनर्विचार करेंगे।
सरकार और आरबीआई को भी इस पर सख्त गाइडलाइन जारी करनी चाहिए ताकि किसी भी व्यक्ति के साथ भविष्य में इस तरह की मनमानी न हो।
दूसरी तरफ, कर्जदारों को भी यह समझना होगा कि लोन एक जिम्मेदारी है और उसे चुकाना उनकी पहली प्राथमिकता होनी चाहिए।
निष्कर्ष
दिल्ली हाईकोर्ट का यह फैसला सिर्फ एक केस तक सीमित नहीं है, बल्कि यह उन लाखों लोगों के लिए राहत और इंसाफ है, जो कभी न कभी बैंकों की सख्त रिकवरी नीतियों का शिकार बने हैं।
अब साफ है कि बैंक कर्जदारों पर दबाव तो बना सकते हैं, लेकिन उनके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन नहीं कर सकते।
यह फैसला आने वाले समय में बैंकिंग सेक्टर और आम लोगों, दोनों के लिए एक नई दिशा तय करेगा।