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भारत–अमेरिका डॉलर व्यापार मुद्दा: वैश्विक अर्थव्यवस्था की नई कसौटीप्रस्तावना

भारत ने साफ़ किया है कि वह फिलहाल अमेरिकी डॉलर के अलावा किसी और मुद्रा को वैश्विक व्यापार के लिए नहीं अपनाएगा। इस फैसले के कारण, प्रभाव और भविष्य की संभावनाएँ जानिए।”

भारत और अमेरिका आज दुनिया की दो सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाएँ हैं। दोनों देशों के बीच व्यापार, निवेश और तकनीकी सहयोग लगातार बढ़ रहा है। ऐसे समय में जब कई देश अमेरिकी डॉलर पर अपनी निर्भरता कम करने के बारे में सोच रहे हैं, भारत ने स्पष्ट किया है कि वह फिलहाल वैश्विक व्यापार के लिए अमेरिकी डॉलर के अलावा किसी और मुद्रा को अपनाने की योजना नहीं बना रहा है। यह रुख भारत की व्यावहारिक और संतुलित आर्थिक नीति को दर्शाता है।

पृष्ठभूमि: डॉलर से अलग होने की चर्चा क्यों

रूस-यूक्रेन युद्ध, पश्चिमी देशों के प्रतिबंध और चीन-अमेरिका तनाव के बीच कई देशों ने डॉलर पर अपनी पकड़ कमज़ोर करने की कोशिशें शुरू कीं। BRICS शिखर सम्मेलन में भी “साझा मुद्रा” और “डॉलर रहित भुगतान प्रणाली” जैसे विचार उठे।
रूस और चीन इस दिशा में ज़ोर दे रहे हैं, जबकि भारत ने अधिक सतर्क और यथार्थवादी रुख अपनाया है। भारत के लिए यह निर्णय इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि उसकी अर्थव्यवस्था और वैश्विक व्यापार अभी भी डॉलर पर भारी निर्भर है।

भारत के लिए डॉलर की अहमियत

– तेल और गैस खरीद: भारत दुनिया के सबसे बड़े ऊर्जा आयातकों में से है। कच्चा तेल, प्राकृतिक गैस और अन्य रणनीतिक वस्तुएँ ज़्यादातर डॉलर में खरीदी जाती हैं।
– निर्यात और विदेशी निवेश: भारतीय IT सेवाएँ, दवाइयाँ और इंजीनियरिंग उत्पाद अमेरिका और यूरोप में बड़ी मात्रा में जाते हैं, जिनके भुगतान डॉलर में होते हैं।
– वित्तीय स्थिरता: डॉलर में भुगतान करने से विनिमय दरों में पारदर्शिता रहती है और अंतरराष्ट्रीय निवेशकों का भरोसा बना रहता है।

BRICS और वैकल्पिक मुद्रा की चुनौती

BRICS देशों की एक साझा मुद्रा की योजना सुनने में आकर्षक लग सकती है, लेकिन इसे ज़मीन पर उतारना आसान नहीं है।
– देशों को एक साझा वित्तीय ढांचा, स्थिर विनिमय दर और मजबूत संस्थागत ढांचा चाहिए।
– भरोसेमंद भुगतान और निपटान प्रणाली (Settlement System) विकसित करनी होगी।
– राजनीतिक इच्छाशक्ति और पारस्परिक विश्वास भी आवश्यक है।
इन सब में वर्षों लग सकते हैं। इसलिए भारत ने कहा है कि फिलहाल डॉलर से अलग होना व्यावहारिक नहीं है।

भारत–अमेरिका संबंध और डॉलर

अमेरिका भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार है। तकनीक, रक्षा, ऊर्जा और सेवाओं में दोनों देशों के समझौते अरबों डॉलर के हैं। ऐसे में डॉलर से अलग जाना न सिर्फ़ अमेरिकी बाज़ार में अनिश्चितता पैदा करेगा बल्कि द्विपक्षीय संबंधों पर भी असर डाल सकता है।
भारत की रणनीति यह है कि वह डॉलर का उपयोग जारी रखते हुए धीरे-धीरे अन्य मुद्राओं में छोटे प्रयोग करे — जैसे कुछ देशों के साथ रुपये में व्यापार, मुद्रा-स्वैप समझौते या युआन में सीमित लेन-देन।

विशेषज्ञों की राय

आर्थिक विशेषज्ञ मानते हैं कि अमेरिकी डॉलर की वैश्विक पकड़ इतनी मजबूत है कि उससे तुरंत बाहर निकलना किसी भी बड़े देश के लिए आसान नहीं है।
– SWIFT जैसी अंतरराष्ट्रीय भुगतान प्रणाली अभी भी डॉलर केंद्रित है।
– डॉलर की गहरी तरलता (Liquidity) और स्थिरता निवेशकों को आकर्षित करती है।
– नई मुद्रा या भुगतान व्यवस्था को वैश्विक स्तर पर स्वीकार्यता दिलाना कठिन है।
इसलिए भारत का रुख तर्कसंगत और व्यावहारिक लगता है।

आम नागरिकों के लिए क्या मायने

रुपया-डॉलर विनिमय दर सीधे महंगाई और आयातित वस्तुओं की कीमत पर असर डालती है। यदि रुपया डॉलर के मुकाबले कमज़ोर होता है तो पेट्रोल, डीज़ल, इलेक्ट्रॉनिक्स और अन्य आयातित सामान महंगे हो जाते हैं।
भविष्य में यदि भारत धीरे-धीरे अन्य मुद्राओं में व्यापार बढ़ाता है तो रुपया मज़बूत हो सकता है और कीमतें स्थिर रह सकती हैं, लेकिन यह प्रक्रिया समय लेने वाली है।

निष्कर्ष

भारत–अमेरिका डॉलर व्यापार मुद्दा सिर्फ़ मुद्रा का प्रश्न नहीं है, बल्कि यह अंतरराष्ट्रीय कूटनीति और वैश्विक अर्थव्यवस्था का भी हिस्सा है। भारत फिलहाल डॉलर को छोड़ने के बजाय एक संतुलित और व्यावहारिक नीति अपना रहा है। भविष्य में परिस्थितियाँ बदलें तो विकल्पों पर विचार किया जा सकता है, लेकिन अभी के लिए डॉलर ही भारत के लिए सबसे सुरक्षित और सुविधाजनक रास्ता है।

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